Monday, December 21, 2015

मुस्कुराहट खुद चलकर मेरे चेहरे तक आई



बस कुछ ही घंटो की बात हैं
मैं बस में घुसी हेड सेट लगाए
सब को अनदेखा करते हुए मैं सीट पर बैठ गयी
मैं लेट हो रही थी
बार - बार नज़र कलाई घड़ी पर जाती
बॉस की डाँट की थी चिंता सताती
लगा काश कोई एसी मशीन होती
जिससे मैं फॅट से ऑफीस पहुच जाती
ये तंग वातावरद की गर्मी थी मुझे सताती 
मैने आँखें कर ली बंद
ताकि सुकून मिले कुछ चन्द
तभी किसीने कोहनी दे मारी
जब मैनें गुस्से से नज़रें बाई और घुमाई
नन्हें कोमल पैरों को अपनी गोद पर पाया 
वो मासूम सब से अंजान
अपने पाव किसी अपरिचित पर पटकाकर मुस्कुराया
मुझे देख आँखे मिंच, मा के आँचल मे छुप गया
उसकी ये हलचल को देख मैं सब भूल गयी
कितना खूबसूरत वो अहसास था
जाने उसमे क्या ख़ास था
मुस्कुराहट खुद चलकर मेरे चेहरे तक आई

Friday, December 18, 2015

Shayari


उदास मन


सारा जाग रूठा रूठा सा लगता हैं
हर पत्ता सूखा सूखा सा लगता हैं
ना जाने क्यूँ फूल भी मुरझा रहे हैं
पंछी जाने क्या गुनगुना रहे हैं
जाने क्यूँ सब उदास सा हैं
बीती बातों में एक एहसास सा हैं
नीले बदल पर मेघ है छाए
अब हमे जाने क्यू कुछ ना बाए
ना जाने सब को आज क्या हुआ हैं
सोचा तो पता इसमे मेरा ही हाथ हैं
एक छोटी सी बात हैं
की ये सब नहीं
आज सिर्फ़ मेरा मन उदास है

Monday, December 14, 2015

यदि रात ना होती


सोचो यदि रात ना होती तो क्या होता
तो कोई व्यक्ति रात मे ना सोता 
दिनभर की चिंता थकावट संघर्ष से मुक्त न होता
रात विश्राम का समय है होता 
पर यदि रात ना होती तो कोई नही सोता
यदि रात ना होती तो चाँद ना होता
चाँद की चांदनी पाने के लिए सारा जाग रोता
तब तारे भी ना होते
सभी तारोंकी टिमटिमाहट से अंजानहोते
कवि जो निशा, चाँद, तारों पर है लिखता
तब उनकी कलम ना चलती
और आगे कविता बनाने की प्रेरणा भी ना मिलती
जो रात मे सफेद कलियाँ है खिलती
वह भी ना होती
पूरा दिन शरीर को झुलसने वाली लू पड़ती सहनी
रहती हमेशा तापी हुई धरती
यदि रात ना होती, तो दिनकर की महत्ता ना होती
तब दिया, मोमबत्ती, टॉर्च, लाइट की ज़रूरत ना पड़ती
यदि रात ना होती तो आनंद ना होता
रजनी की मुस्कान ना होती
उल्लू अपना शिकार ना ढूँढ पता
दीवाली म्व दीपकों की महत्ता ना रह पाती
यदि रात ना होती तो चोरों को चोरी का मौका ना मिलता
ठंडी मे ग़रीबों को ठंड से दुर्दशा ना होती
पर कड़ी धूप भी तो सहन ना हो पाती
पहरेदार की नींद हराम ना होती 
जिन्हें दाने दाने के लाले है
दिया जलाने के लिए.तेलबत्ती की चिंता ना होती
सड़कों पर स्ट्रीट लायटो को खर्चा ना होता
कोई एल्वा एडिसिओन का जन्म ना होता
परंतु इन सब लाभो से रात की कीमत घटती नहीं
यदि रात ना होती तो हमारा जीवन अधूरा रह जाता
दूर दूर तक आनन्द दिखाने ना पता
रात मे सपने न आते
और उन्हे करने का जोश भीना आता
क्या तुम सब अब समझे 
यही रात ना होती तो क्या होता

दिए की लौ भुझहने ना पाए

एक वक़्त था, जब घोर अंधकार से साना था अपना देश
स्वतंत्रता तो रह गयी थी नाम मात्र सेश
तब एक नही, लाखो बढ़कर आगे आए
अँगरेजो पर काल की तरह मंडराए
फिरंगी को हटाने का उत्साह सबके मंन को भाए
हर कोई आज़ाद मशाल ले आए 
याद करो उन लोगों की
देश के वीर जवानों की
कुछ सालो पहले ही तो
कुछ सालो पहले ही तो 
देखा था हमने कुछ जोश नया
थी उनमे कोई बात नयी
उनके तो रग- रग मे देश प्रेम था समाया
उन्होने स्वदेश की खातिर ही तो रक्त बहाया
आज़ादी पाने के लिए अपना हर कटरा मिटाया
एक अजब सा नशा और जोश था उनमे
मानो किया हो मधूसला का सोपान उन्होने

अपनी ज़िम्मेदारी वे निभा गये
हमें एक सीख सीखा गये
पर आज क्यूँ सबने स्वार्थ की ओर खुद मूह मोड़ लिया
कहा खो गया है वो जज़्बा
कहते हो आम इंसान हो तूम 
वी भी तो इंसान थे,
वे भी थे प्यारे मा बाप के
प्यार से सिंचा था जिन्हे
पर आपनी परवाह कब थी उन्हे
गोली से हुए लाहुलुहान वे
कुछ जल गये कुछ दफ़नाए गये
पर मरते मरते भी वे कह गये
हम रहे या ना रहे.
हमारा वतन सलामत रहे 
हमारे देश की आन, मान, और शान बरकरार रहे
चाहे इसके लिए हम जो भी सहे

नत मस्तक सिश हमारा उन वीरो के नाम
जिन्होने किया अपना सर्वस्वा अपने देश के नाम
याद रहे ये दिए की लौ भुझहने ना पाए!!!!!!

Sunday, December 13, 2015

क्या ये इंसान है


इस बढ़ती जनसंख्या के बीच
हृदय संकीर्ण हो गया है

पहले यादों में जिया जाता था
पर अब यादें आने का समय नहीं 
क्या ये इंसान है

कोई रहा हो कृतघना तुम पर जितना भी
पर अब धन्यवाद देने का समय नहीं है
उपर से उनकी कृतघ्नता को पैसो मे तोला जाता है
क्या ये इंसान है

पहले उँची सोच से लोगों को परखते थे
पर अब उँची पदवी ही उनका चरित्रा प्रदर्शक बन गया है
धन का तो उच्च पदवी वालों के घर पे है बसेरा
निर्धन को नहीं दिखाता धन अपना चेहरा
क्या ये इंसान है

ये कैसी विडंबमा है, लोग धन के पीछे भागते है
भाई- भाई को भी ना पहचानते है'
बस धन दौलत को ही अपना सगा  मानते है 
अब कहो, क्या ये इंसान है

क्या सच में इस बढ़ती जनसंख्या के बीच
हृदय संकीर्ण हो गया है

Saturday, December 12, 2015

Why the emotions are short lived?

I saw a old man
On a street road 
Carrying a heavy load
He was struggling to walk
& I was hesitant to help or to talk


I go further...
Came across a beggar lady
Who seemed extremely needy
I cried. 
But soon my tears dried 
Looked as if my instinct lied
Wondering...Why the emotions are so short lived?
Some are noticed & some go intentionally unnoticed.

Tuesday, December 8, 2015

Dayara

जब रात में थक कर कुछ सोचती हूँ
लगता है की शायद शरीर पर सीलन सी पड़ गयी है
कुछ समय से बेरोज़गार सी पड़ी है
अपने आपको सर्कस के जोकर सा पाती हूँ
सासों में घुटन, तंग हवओ में जीती हूँ
दोष किसका कहूं, शिकायत किससे करूँ,
रोजमर्रा के बोझ  में इच्छायें दम तोड़ने लगी है
आख़िर मेरी ज़िंदगी कहा जा रही है
इन चार नपी तुली लाइनों के दायरों मे दबी जा रही है

Sunday, December 6, 2015

नोट लो वोट दो

अब नेता बनना आसान हुआ
बिन कुछ किए ही नेता महान हुआ
क्या कलयुग आ गया है
हर नेता बोल रहा है
"नोट लो वोट दो"

हर तरफ हुए प्रचलित ये नारे 
अब सब फिरते है बनने को नेता मारे- मारे 

फिर वह हो चाहे शादीशुदा या हो कवारे
या हो लालू या हो भालू
सब बन जाते महान है
क्योकि सबका नारा यही है
"नोट लो वोट दो"

नेता अनपढ़ हो, चोर हो, डाकू हो या हो मवाली
या फिर उनकी ज़बान पर रहती हो गाली
पद पाने की लालसा में हर हद पार कर डाले
दसो गूँडो को प्रचार के लिए पाले
वे भासद दे ऐसा जैसे सच्चे नेता है
पर याद रखे वे सच्चे अभिनेता है
लगे वही करेंगे हमारी और समाज की सेवा
करेंगे जन की भली तरह से सेवा
इसी मे उनके मन को मिलेगा मेवा
पर वे नेता बनाने के बाद
चल दे अपनी शतरंज की चाल
मुकर पीछे हट जाए आपने भाषण  मे दिए वादे से
नकार दे अपनी सारी बात
यह खेल है धन का
क्यूकी हर नेता बोल रहा है
"नोट लो वोट दो"

आज जो दे अच्छा भाषण सो है नेता
अब तो डर है आधी आबादी बन बैठे न नेता
देखो क्यूकी नेता बनना आसान हुआ
बिन कुछ किए ही नेता महान हुआ
तुम जो बैठे इसे पढ़ रहे हो
अब तुम भी राजनीति मे पाव धरो
नेता का पद तुम स्वीकार करो
"नोट लो वोट दो"

Thursday, December 3, 2015

ख़याल


काबू तो शरीर और दिमाग़ पे चलता है
ख़यालो को कैसे मैं बाँध पाती
वो तो आपने में ही दौड़ लगता है

अपने को व्यस्त कर 
जाने मैं किसे छलती थी
मैं तो स्थिर बैठी थी
पर मेरे ख़याल चारों दिशा में दौड़  लगाते थे 
लगता था आँखों ने वो लम्हा क़ैद कर लिया हो
और आज रिप्ले का बटन दबा दिया हो

अब क्या करे, यादों की तार तो दिल से जुड़ी होती है
मैं तो दिल की सुनती थी
पर ये दिल कब किसी की सुनता है

सच है काबू तो दिल और दिमाग़ पे चलता है
तो ख़यालो को कैसे मैं बाँध पाती

Monday, November 30, 2015

मैं और मेरी कलम

मैं ज़रा नाराज़ हूँ
जाने क्यूँ मेरी कलम कुछ लिखने को तैयार नही

शायद मेरी कलम ने मेरी बात मानना छोड़ दिया है

मैं और मेरी कलम घंटो साथ बैठा करते है
पर काग़ज़ तो अब भी कोरा का कोरा है
कोई तो समझाए मेरी कलाम को
ये बेरूख़ी अब नही अच्छी

Tuesday, November 24, 2015

महफूज़



आज आतंक का कोहरा छाया है
हर तरफ दिलो में भड़कती ज्वाला है
जिनमे न वे अपना अस्तित्व बचाते है
परन्तु अन्यों को भी मिटाते है
अब रहा न किसी कोने में कोई महफूज़ |
 
आज आतंक की जड़े चारो ओर सुलगी है
जिसमे पीड़ित हो कई माये अपने बच्चो के लिए रोई है
आँखों में दर्द और डर समाया है
प्रेम का भाव मनुष्य कही दफ़ना आया है
अब रहा न किसी कोने में कोई महफूज़ |
 
हर तरफ लाचारी, बेबसी ने हाथ बढ़ाया है
आतंकवाद ने अपना झंडा फहराया है
हर तरफ आग की लपते है
अब तो पेड़ के तले भी ना छाया है
अब रहा न किसी कोने में कोई महफूज़ |
 
हाय रे, अब भी समय है
इए समस्या से लड़ना होगा
और इस पर विजय पा इसे जड़ करना होगा
अरे! देखो कही देर न हो
यह घुल न जाये पूरे विश्व में विष की तरह
इससे पहले ही कुछ कर गुज़रना होगा
इस आतंकवाद को हमें मिलकर मिटाना होगा
जिसके कारण रहा न किसी कोने में कोई महफूज़ |

Sunday, November 15, 2015

Dance Floor


ना जाने क्या मज़ा है 
Dance Floor की रंग बिरंगी जलती -बुझती लायटो में
लोग एक लय में थिरकने लगे
खुद में मस्त हो कुछ बहकने लगे

DJ ने किया म्यूज़िक लाउड 
हॉल मे अपने आप बढ़ गया क्राउड
कुछ दीवाने अपने हर move पे हो रहे थे proud
तो कुछ यूँ ही झूमते थे, जैसे आसमान मे mad cloud

जहा सब नाचने में है खोए 
वही कुछ चेयर पे बैठे करते अपने head को Shake
इसमे किसी की कोई नही Mistake
ये है Dance Floor
ये नही करता किसी को bore 

Friday, October 16, 2015

नफ़रत की दीवार



एक मेरा सच है
और एक तेरा पक्ष है
नफ़रत की इस दीवार पर साथी एक पैगाम
तू भी लिख
ये बतला, कब लोगो से परे गोलियाँ तेरी दोस्त बन गयी
ये कैसा रोष
हुई तेरी चेतना बेहोश
आँखे मूंदकर बस गोली चला दी 
कभी ये सोचा उसके पीछे भी कोई रोता होगा
किसी की पत्नी को बेवा और
बच्चों को यतीम करते समय
तेरे हाथ कभी नही कापते 
चिखते गिड़गिदते लोगो का ख़ौफ़ देख 
शायद हृदय के किसी कोने मे द्वंद भी तो होता होगा
तेरी जिंदगी के मायने क्या खून ख़राबा है
तो ये जिंदगी, जिंदगी नही छलावा है
दिन भर की दहसदगीर्दी के बाद
रात मे क्या सपने लेकर सोता होगा
नफ़रत की इस दीवार पर साथी
अपना पैगाम तू भी लिख.

Monday, July 13, 2015

तुम याद बहुत आओगे

चले गए दूर तुम अब
लौट के न आओगे
फिर भी तुम हमें बड़ा रुलाओगे'
और तुम याद बहुत आओगे

हमारे  बीच फ़ासले है, दरमियाँ है
फिर भी हम दोनों के दिलो में
तुम जितना भी दूर जाओगे
फिर भी तुम याद बहुत आओगे

अब न जाने कब किस मोड़ पर मिलना हो
तब तुम्हारा बदला स्वरुप देख पछताएंगे
पर ये सोच हम अपने दिल समझाएंगे
की कही न कही हम भी बदले है
इस बदलाव में दोनों का  दोष है
क्योंकि समय की गति  बलवान होती है
अब  बस मुझे तुम ख्वाबो में
याद बहुत आओगे


Sunday, July 5, 2015

" क्या ह्म सही माईने में दिवाली है मानते ?"

हम पूछेंगे जब क्या है दिवाली
हम क्यों है इसे मानते
लोग कहेंगे उस दिन बम, अनार, चकरी, रौकेट, फटके, फुलझरी है जलाते
पर सत्य पर असत्य की विजय हुई थी ये वह नहीं जानते
इस दिन तम को प्रकाश ने हरा था ये इतना नहीं समझते 
क्या ये सही माईने में दिवाली है मानते ?

इस दिन नए कपडे, मिठाई, पकवान, फटाके भर- भर है लाते
पर एक नाय विचार भी तो नहीं अपनाते 
संपन्न को ढ़ेरो मिठाइयाँ है बाँटते 
पर द्वार पर खड़े भूखे- नंगो को है धुत्काराते
क्या ह्म सही माईने में दिवाली है मानते ?"


अगर फटाके जलना है दिवाली
तो आपको ये मानना होगा
हम केवल छोटी दिवाली को है जानते
और आतंकवादी घातक बमों के गोलों के दम पर बड़ी दिवाली है मानते
खाने- पिने का टोटारहता है घर में
पर फिर भी अपनी संजोयी संपत्ति को जुए में है उड़ाते
क्या ह्म सही माईने में दिवाली है मानते ?
वो भूली बिसरी बाते
जब नानी-दादी अपने पोता-पोती को कहानी थी सुनती
पर अब वह खुद अंधियारी कुटिया में दुबक कर रह जाती
व्यर्थ है दिवाली का मानना
जब तुमने इसका अर्थ न जाना
हम हर साल दिवाली का इंतज़ार है करते
पर क्या ह्म सही माईने में दिवाली है मानते ?
लो फिर आई दिवाली
जगमग हुआ सारा जग
मीठे पकवान सब मिलकर है बनाते
पर चलो इस बार इसे अपने लिए नहीं औरों के लिए बनाये
अंधियारी गलियों में खुशियों का दीप जलाये
चलो सही माईने में दिवाली मनाये!!

Sunday, June 21, 2015

ग़ज़ल

जो लौट कर गये थे
कहकर की आनेवाले है
फिर पलटकर क्यों देखा भी नहीं

हमने उसको टोका नहीं
उसने ख़ुद को रोका नहीं
और तकदीर ने दिया, कोई मौका भी नहीं
इंतज़ार जो मेरा नसीब बन गया है
उसे इसकी खबर भी नहीं

कर दिया रुसवा भरे बाज़ार में, बस तेरे इनकार ने
जाने क्यों अब इतनी बेमुर्रवत हो गयी है जिंदगी
कभी देखी थी जन्नत, पर अब मिलन ख़यालो में भी नहीं


Saturday, June 13, 2015

बारिश का मौसम


जब भी नभ में बादल घिरते है 
तब नभ से शीतल नीर बरसते है 
मेघ गरज- गरज कर हमें संगीत सुनते है 
ये अपनी गरिमा से हमें लुभाते है 
नन्हीं -नन्हीं बूंदे  धरती पर गिरती है 
मन को सौंधी खुसबू से भरती है 
हर तरफ खुशी की लहरे है छायी 
किसान बारिश के आगे नत मस्तक हो जाते है 
सुख से अपनी बींजो  को उपजाते है 
चाक की श्रुधा और प्यास जाएगी 
देखा अब हरियाली कालीन धरा पर बिछ जाएगी 
वन में मयूर पर फैलाये नृत्य करने लगे है 
बच्चे  भी पानी में हिलोर, उछल-कूद करने लगे है 
इस बारिश की  बौछार में  करे गरम चाय की प्याली 
 सब के चेहरों पर खिल उठे लाली 
अब रहे न कोई गम 
लो आया बारिश का मौसम 

Friday, June 5, 2015

नर्तकी अब नाच कर ले

नर्तकी अब नाच कर ले

आ गए सब द्वार तेरे 
बैठे चारो ओर तेरे घर को घेरे
मैं भी आया द्वार तेरे 
अपने घर से मुँह फेरे 
नर्तकी अब नाच कर ले 

नर्तकी तेरा नाच देखा 
लोंगो ने तेरे लिए कितना पैसा फेंका 
लेकिन मैं तुझे क्या दूँ, क्योंकि मैं अकेला 
मेरे संग यहाँ मेरा न साथी न कोई चेला 
नर्तकी अब नाच कर ले 

लोग कहते है द्वार तेरे कभी न जाना 
बदनाम होगा जिसने ये कहना न माना 
पर तेरे द्वार आकर मैंने कितना सुकून पाया 
कितनी गजब की है माया 

फिर मैंने सोचा 
सच में तेरा जीवन है क्या 
तू गाती दुसरो के लिए है 
नाचती किसी और के लिए है 
सुख देती है दुसरो को 
और स्वयं आंसुओ के घूंट पीती 
तेरा क्या 
फिर भी बदनाम रहती तू 
नर्तकी फिर भी नाच कर ले तू 

Saturday, May 23, 2015

अंडरवर्ल्ड डॉन और पुलिस






Underworld, Don, भाई, गुंडे, Terrorist, Naxalite सच में एक दयनीय जीवन जीते है।  उनके पास पैसा खूब होता हैं, पर आज़ादी छिन जाती हैं।  छुप - छुप कर जीना पड़ता है।  मार काट तो  जीवन का हिस्सा बन जाता  है।  वे हज़ारो निहत्थे आम आदमी को बिना किसी कसूर मौत की नींद सुला देते है।  यही मार काट उनकी शक्ति का परिचायक बन जाता है।  मरते समय वे लोंगो की आँखों में ख़ौफ़, आँसू  और डर देख कर प्रसन्न  होते है, उन्हें मज़ा आता है। डराना-धमकाना तो उनका आम कार्य है। इस क्षेत्र में यदि कोई कच्चे दिलवाला आ  जाये तो वह उसी के बीच पीस कर रह जाता है।  रोज़-रोज़ खून की नदियों को देखते -देखते एक दिन न जाने कब उसका खून भी बह जाता हैं ।  उनकी मृत्यु कब, कहाँ,  कैसे हो जाये उन्हें नहीं पता।  पर इतना ज़रूर पता है उन्हें मारना ज़रूर है।  पुलिस की गोली से या अपने ही किसी भाई के हाथ से।  इन सब लोंगो में यह बात सामान पायी जाती है की वैसे वे ख़ुशी से हज़ारों को गोली से उड़ा देते है और तब भी उनकी आँखों में कोई खौफ, डर  या दर्द नहीं होता पर अपनी मृत्यु के समय उन्हें नाना प्रकार के डर, परिवार की याद, गलती का एहसास हो जाता है। तब वही व्यक्ति जो किसी की लाइफ की कोई कद्र नहीं करता है जिसके हांथो से हज़ारों की जिंदगी होती है (आज) एकाएक अपनी मृत्यु आने पर ज़िन्दगी की भीख मांगता है। पर आखिर में इन्हे पुलिस अपनी गोली का निशाना बना लेती है । जिसे वे encounter का नाम देते है । उनके शव का ना अंतिम संस्कार होता है ना वो दफनाए जाते है । जिनके बाद ना उनके नाम सुनाई देते है ना काम। इस मामले में पूरा दोष इनको देना गलत है। पुलिस को एनकाउंटर के अलावा कोई अलग रास्ते इख़्तियार करने चाहिए जिससे वे इन्हे पकड़ सके और सुधार सके, क्योंकि एनकाउंटर एक अप्रिय घटना है। इसमें कई बार आम इंसान भी शिकार हो जाया करते  है।पर पुलिस करे तो क्या करे। ऐसे लोग समझने से समझते भी तो नहीं। उनका दिल नहीं, दिमाग नहीं, सिर्फ उनकी गोली बोलती है। उनके भाव नहीं होते बस पिस्तौल चलती है। उनमे देश प्रेम की भावना नहीं केवल पैसा बोलता है। पैसे की  खातिर वो देश को भी बेंच देते है। ऐसे लोगों को क्या एक मौका भी दें उचित होगा ? .... 
पर मनुष्य को कब और किसने ये अधिकार दे दिया की वह ईश्वर के रूपों को यूहीं मौत की घाट उतार देना, यूहीं उनकी जान लेले। जितनी निर्दय, क्रूरता से ये डॉन, भाई लोग मारते है। उनसे भी दो हाँथ ऊपर होती है पुलिस। जो उन्ही को उससे भी अधिक निर्दयता से गोली मार देते है। ये गोली के शहंशाह पुलिस की ही गोली खाकर अपना दम तोड़ देते है। अब आप समझ ही रहे है। हिंसा से किसी का भी कभी भला नहीं हो सकता है। यदि आप हिंसा से कुछ प्राप्त करते तो हिंसा ही उसे डूबा ले जाती है। गांधीजी भी इसे भली भांति जानते थे इसलिए तो उन्होंने अहिंसा का साथ दिया और तभी तो उन्हें कोई आपने लक्ष्य को पाने से रोक न सका और हम अब आज तक स्वतंत्र है और रहेंगे। 

Tuesday, April 28, 2015

काश दिल में यादें लिखने वाली पेंसिल का भी कोई रबर होता



काश दिल में यादें लिखने वाली
पेंसिल का भी कोई रबर होता

वक़्त बेवक़्त आती यादो को रोक पाती 
मेरे दिल का दरवाज़ा अक्सर खुलता बंद होता रहता है 
और ज़िद्दी यादों की ताका -झाँकी भी चलती ही रहती है
क्या करे दिल हज़ारों ख्वाइशें जो  करता रहता है
कभी दिनों में, कभी घण्टों में, तो कभी पलो में 
रह रह कर दस्तक दे जाती है 
ये वक़्त और जगह नहीं देखती है 
बेवक़्त ही सताती है 
कभी तो तन्हा भी छोड़  जाती हैं 
सच में, इसे बहला पाना आंसा नहीं 
इसलिए सोचती हुँ 
काश दिल में यादें लिखने वाली
पेंसिल का भी कोई रबर होता



Tuesday, April 21, 2015

उड़ान



उड़ान 
उसकी मुट्ठी से जादू का पिटारा निकला था उस दिन
मेरे सपनों का नज़ारा निकला था उस दिन
मुट्ठी हर बार की तरह खाली नहीं थी
उसमे मेरी ख्वाइशें क़ैद थी
जो आज खुल रही थी
उसने ज़रा सी ढ़ील दी और मैं हवा में उड़ गयी
चार दिवारी में बंद कमरा अब मुझे क्या रोकता
मेरे पैरों को तेज़ गति जो मिल गयी थी 


Sunday, April 19, 2015

एक छोटी सी खिड़की से कितनी दुनिया देख चूका


मैं तीसरे माले पर रहता हूँ
अपने में कुछ खोया- खोया
सब से बेखबर
अपनी छोटी सी चार दिवारी में बंद दुनिया
घर में एक छोटी सी खिड़की है
जो मुझे दूसरों से कभी कबार जोड़ देती है
बैठे- बैठे वहाँ से आते जाते लोगों को देखा करता हूँ
उनकी हँसी में अपनी हँसी खोजा करता हूँ

नाख़ून चबाता जब सामने से कोई निकले
मेरा दिल ! क्या हुआ ये जानने मन मचले
रुआँसा सा जब कोई दबे पाँव चला जाता है
मेरी जिज्ञासा भी बढ़ा जाता है
सोचता हूँ, पूंछूं क्या हुआ ?
पर तहज़ीब का दायरा याद आ जाता हैं

बॉल लिए जब कोई अपनी धुन में चला जाता हैं
कभी गेंद आकाश में उछाले, तो कभी ज़मीन पर
कभी उँगलियों पर रखकर  करतब दिखाता
उसे देख मझे मेरा बचपन याद आता

सर्दी के मौसम में, मैं कोट पे कोट डाले बैठता हूँ
तो खिड़की के बाहर बिखारी को मैं नंगे बदन सुकड़ता सा पता हूँ
तब अपने शरीर पर स्वेटर और ओवरकोट के अंदर भी
शरीर पर उठे काँटों के अहसास से सिहर सा जाता हूँ

जब चार कंधे शव को गली से ले जाते
तो उसके परिजन का शोक देख मेरे आँखों में आँसूं छलक आते

मैं इस खिड़की पर लटका देखता हूँ हज़ारों नज़रें
हज़ारों चेहरे, कोई नाचता, कोई गाता, कोई रोता और कोई मुस्कुराता
कितनी अलग है ये दुनियाँ 
खिड़की के अन्दर एक दुनियाँ
खिड़की के बाहर अनेकों दुनियाँ

Saturday, April 18, 2015

चोरी

चोरी करना कला नहीं, मजबूरी है
उस बेबस बाप की, जिसका बेटा भूख से तिलमिला रहा है
उस बीवी की, जिसका पति शराब में धुत किसी कोने में पड़ा है
उस मासूम बच्चे की, जिसे अब तक उसका मन पसंद खिलौना नहीं मिला
उस माँ की,  जो अपने परिवार को खुश देखना चाहती है
ग़लत वो नही, ग़लत तो हालत है





Tuesday, April 14, 2015

Short Cut

शॉर्टकट

साधारण मार्ग से सब है अंजान
रहती है शॉर्टकट की सबको  तलास
Cheating कर exam में  आते है first 
Practical result हो जाता है worst

शॉर्टकट के प्रचलन ने लाई जीवन में कितनी complications
अब SMS का ज़माना है 
तो briefing को हमें निभाना है 
अब शॉर्टकट सर चढ़कर बोल रहा है 
पिताजी को अब पा सारी दुनिया बोल रहा है 

जब बच्चे ने एक important  बात का जिक्र बाप से करना चाहा 
पिता बोले "flight का time हो रहा है 
ज़रा शार्ट में बताना "
बेटा बोला, ठीक है ज़रा 4000 का नोट तो पकड़ना
पिता ने कहा how rude 
बेटा बोला Daddy I was going according to your mood
कल मेरा जन्मदिन है दोस्तों को पार्टी है देनी
बाप बोला मिल जाएंगे, ऐसे पहले क्यों नहीं बताया 
पर Daddy मैंने तो बस आपका समय बचाया 

आखिर क्यों?
कुछ पल के परिश्रम से घबराकर 
लोग शॉर्टकट को अपनाते है
देखो स्वयं ही मुसीबत से घिर जाते है 
शार्टकट सारी  अच्छी बातों को करता है कट 
फिर भी सब बोले 
Long route ही क्यों 
"Lets take the shortcut"

Sunday, April 5, 2015

Ghazal



माना की मसले बहुत है दुनिया में 
और ये रिस्ते भी कम संजीदा ऩही
पर क्या ज़िंदगी अब इतनी भी मयस्सर नहीं 
की सुकून के कुछ लम्हे गुज़ार ले...

सुना है, ग़मों से रूबरू होते ही 
शकशियत  में और निखार आ जाता है 
लो ये भी कर लिया 
पर अब भी कुछ नहीं बदला 
न फ़ज़ाए बदली 
ना ये नज़ारे बदले 
गीले भी है, शिकवे भी है 
और खड़े सब मसले भी है 
शायद ये ही ज़िन्दगी है और शायद नहीं भी है


Saturday, March 28, 2015

खोई सी उम्मीद

आज मेहनत नहीं नसीब की बात करता है आदमी 
अपनों की नहीं सिर्फ अपनी बात करता है आदमी  
अब विचार संकीर्ण होते जा रहे है 
झूठ को सच कहता है आदमी 
मुर्दा घर में भी बड़े शान से चलता है आदमी 
ईमानदारी ने जैसे आँख मूँद ली हो 
बेशर्मी का नंगा नाच दिखा रहा है आदमी 
आज डर का माहौल सजा है
हर तरफ़ बमो और विस्फोटो का चर्चा छिड़ा है 
कुछ को ये विनाश छूकर गया है 
तो कइयों का चिथड़ा पड़ा है 
आज ईश्वर को मन नहीं मंदिरो में खोजा जाता है 
जब अन्याय से लड़ने को कोई अकेला खड़ा आवाज़ लगता है 
तब दूसरा उससे कुछ कदम दूर चला जाता है 
और न्याय भी चादर ओढ़ मीठी नींद सो जाता है 
क्या ये सुन्दर गुलस्ता बिखर जाएगा 
या कोई इसकी सुरक्षा का भार उठाएगा 
शिकायत तो हम तुम हर पल किया करते है 
चलो उम्मीद की ज्योत जलाए 
एक कदम तुम चलो तो एक कदम हम चलते है 

Thursday, March 26, 2015

खुदगर्ज़ ज़माना

खुदगर्ज़ ज़माना 

इस खुदगर्ज़ ज़माने का साथ हम निभाए कैसे?
कौन सच्चा है ये आजमाए कैसे?
छुप बैठा है भेड़ की खाल में भेड़िया 
उसे  अब हम पहचाने कैसे?

सब को खुला मैदान चाहिए, घर नहीं माकान चाहिए
कोई स्वछंद परिंदा पर फैलाए तोह कैसे?
इस खुदगर्ज़ ज़माने का साथ हम निभाए कैसे?

घड़ी की नोक पर भागता है आदमी 
कुछ बात करनी थी, पल भर के लिए उसे ठहराए कैसे?
क्रोध भरा है भीतर, पर प्यार से इन्हें समझाए कैसे?

लहू अब जम  सा गया है 
वक्त भी थम सा गया है 
जहाँ  ज़िंदगी  से है मौत सस्ती 
डराती है ये वीरान बस्ती 
सोए हुए इस आदमी को अब जगाये कैसे?
घुटन की इस ज़ंजीर से बाहर खुद को निकाले कैसे?

ये कहने को तो कहता जाता है 
भाषण, नारेबाजी तोह कही आर्टिकल छपवाता है 
कहने से परे, कहने की पहलकदमी कोई नहीं करता 
वो पहल, वो शुरूआत  कोई करे तो कैसे ?
इस खुदगर्ज़ ज़माने का साथ हम निभाए तो कैसे?

Saturday, March 14, 2015

ग़ज़ल

ग़ज़ल 

उलझनों ने सुलझना नहीं सीखा 
आज भी हमने इंसानो को परखना नहीं सीखा 
मिल रही है हमें वफ़ा की सज़ा 
फिर भी हमने बेवफ़ाई करना नहीं सीखा !!!