Saturday, November 15, 2014

सूरज की किरणे

सुबह जब परदे की ओट से बाहर देखती हूँ 
खिड़की के जालो से छन कर रोशिनी आँखों में चमचमाती है 
आँखों को मसलकर सूरज को उगते देखती हूँ 
धीरे- धीरे आसमान को नए रंगो में सजते देखती हूँ 
सूरज की छटा चारों ओर बिखरते देखती हूँ 
अलसाई आँखों में एक उम्मीद को जागते देखती हूँ 
सूरज की लालिमा सा ख्वाइशों को बढ़ते देखती हूँ 
सूरज की  तपती धुप  में खुद को संघर्ष करते देखती हूँ
तब पेड़ की छांव देख कुछ सुकून के पल टटोलती हूँ 
फिर ख्वाइशों को छूने का दिल करता  है 
पर रात होते होते सब कुछ धीमा हो  जाता है 
सूरज के ढ़लने  पर आस को टूटते देखती हूँ
इसी उतार चढ़ाव में, मेरा जीवन बस चल रहा है


Friday, October 24, 2014

स्मृतियाँ




मेरी स्मृतियाँ कभी- कभी सैलाब सी आती है
और मुझे उसमे बहा ले जाती है
कभी होंठो पे मुस्कान
तो कभी आँखों में नमी दे जाती है

मेरी स्मृतियाँ कभी- कभी सैलाब सी आती है
वो सारे पल, सामने सजग खड़ा कर जाती है
वो प्यारी यांदे, वो खट्टी- मीठी बाते
सब कुछ सामने नाचने सा लगता है
दिल के तारों को ये एहसास छू कर जाता है
वो लम्हें फिर जिए दिल चाहता है

मेरी स्मृतियाँ और मैं अलग नहीं है
क्योंकि दिल के बज्म में एक कोना जो तुम्हारा है 

Thursday, October 16, 2014

विरान गलियां

विरान  गलियां 

इस विरान सी गलियों में रहता है कोई 
सन्नाटों में भी सन- सन करता है कोई 
सपने तिनको की तरह  बिखर गए है 
अब भी उन तिनकों में आशियाना देखता है कोई 
जहाँ सारी इच्छाएं दम तोड़ देती है 
वहाँ एक नई उम्मीद की कीरन देखता है कोई 

इन तंग गलियो में भी 
स्वछंद साँस लेता है कोई 
जहाँ होड़ में है सब भागते 
वहीं हलके कदम उत्साह से चलता है कोई 

जहाँ सबका है शोशल स्टेटस पर ध्यान 
वहीँ किसी के मायूस चेहरे पर नन्ही सी मुस्कान बिखरता है कोई 
इस रंगीन दुनिया में भी बेरंग रह जाता है कोई 
तो कभी ज़मीन पे जन्मा, आसमान को नापता है कोई 
ये आम आदमी ही, कुछ अनोखा कर गुजरता है कभी 
हाथ की लकीरों को पीछे छोड़ आगे बढ़ चलता है कोई 



Sunday, October 12, 2014

एक मुस्कान

  एक मुस्कान जाने क्यों कुछ गुनगुना गई
  जीने के मायने सीखा गयी
  बीते नगमें याद दिला गयी
  औरों को भी है गम बतला गयी
  खामोशी से अपना किरदार निभा गयी
  मेरे डर पर विजय दिला गयी
  एक मुस्कान जाने कितना कुछ गुनगुना गई





Thursday, October 9, 2014

कलम 


मेरा कागज़- कलम सन्नाटो में चलता है 
जब सब सो रहे होते है 
तो मेरा हृदय और दिमाग कुछ नया गढ़ रहा होता है
वहाँ जब सब गहरी नींद में डूबे होते है 
मैं यहाँ अपनी भावनाओ को टटोलता हुआ करवटे लेता है 
कभी अपने तो कभी चितपरिचित  के बीते पल से गुजरता हूँ 
इन सब को बुनकर, एक नई कविता गढ़ता हूँ 
ये वो लम्हें है जहाँ मैं और मेरा मन 
दोनों एक दूसरे से बात करते है 
उस मैं के अंदर और बहार की दूरी तय करते है 
और अपने एक्सपीरिएंस (Experience) कोरे कागज पर शेयर (share) करते है 

Tuesday, October 7, 2014

वक्त


मैं वक्त को थामना चाहता था 
पर ये नहीं जानता था ,
एक दिन ये वक्त मुझे थाम लगा
समय तो रेत सा हाथ से फ़िसल गया 
पर शायद मेरे पाँव को जकड़ लिया 
मैं  आगे नहीं बढ़ा 
इतना श्रीण सा हो गया 
की बाकी सब बेमतलब सा जान पड़ा 
वक्त ने तोह अपनी सुई की गति रोकी  नहीं
पर मुझे शिथिल कर गया 
वक्त ने घाव तोह भर दिए 

पर निशान नहीं मिटा पाया 
हूंठो पे हँसी तो ला  दी 
पर आँखों की नमी नहीं हटा पाया 
वक्त को मैं क्या थमता 
वक्त ने मुझे ही थाम लिया था 

Monday, October 6, 2014

दस्तक

दिल के दरवाज़े पे दस्तक दे गया था वो 
चिलमन की ओट से बार-बार निहारने लगा था वो 
क्या करे ये दो नैना नादान 
होठ तो कुछ न बोलते 
पर आँखों से छेड़ छाड़  करने लगा था वो 
सब सुन्दर लगने लगा था 
उन फूलों की मैंहक 
प्यारी चिड़ियों की चहक 
लब्ज़ नहीं खामोशी बोलती थी 
अचानक ही इतना हल्का महसूस हुआ 
मानो पंछी के संग उड़ रही हूँ क्षितिज तक 

दर्पण को बार- बार निहारने लगी थी मैं 
जाने क्या सोच यूँ मुस्कुराने लगी थी मैं 
अब बस उन यादों में समाने लगी थी मैं 
दिल के दरवाज़े पे दस्तक दे गया था वो

Sunday, October 5, 2014

ख़्वाब

ख़्वाब 


जुबां सी गई हो मानो 
खामोशी का आलम था 
मन में कुछ हलचल होती 
अपने ही ख़्वाब संजोती 
यादों का पिटारा ले 
पर फैलाये उड़ जाती वो 

सुखद स्मृतियों की लहरें उठती 
गुमनाम गलियों में न जाने कहाँ खो जाती वो ?
नज़रों के सामने से हक़ीकत ओझल होती 
स्वप्नों और आशाओं की दूनियाँ में चल कर जाती वो 
कदमों की थाप का आभास  तो न होता 
बैठे- बैठे ही सबसे बेख़बर हो जाती वो 
यादों का पिटारा ले 
पर फैलाये उड़ जाती वो 

समुंदर की लहरें

" समुंदर की लहरें "


कुछ सुकून सा देती 
लहरा लहरा के चलती है 
ये समुंदर की लहरें यूँही मतवाला  सा करती हैं 

ठंडी ठंडी सी सर्द हवाएँ 
कानों में कुछ सरसरा जाती 
बाह फैलाये मैं उस पल को जी रही हूँ 
निचे कोसो दूर तक पानी हैं 
ऊपर आकाश भी आसमानी हैं 
आज पता चला शोर की शान्ति कुछ ऐसी होती हैं  

Saturday, October 4, 2014

श्याम दूसरी कक्षा का छात्र है ,नाम के साथ - साथ उसका वर्ण भी काला है। मैंने उसे अकेले स्कूल जाते देखा तो पूछ लिया "आज तुम अकेले? मम्मी छोड़ने नहीं आयी"। वह फट से बोल दिया "मैं तो रोज ही अकेले आता हूँ। 
मैंने पुछा:  और मम्मी! वो बोला - वह तो काम करती हैI मैंने जिज्ञासा के कारण पूछ लिया - कौन सा काम? वह बोला " बर्तन धोती है। " फिर जाने मुझे कौन सी गरज पड़ी थी। मैंने पुछा "और तुम्हारे पापा "
वह बोला इलेक्ट्रिक शॉप में। फिर मैंने पुछा घर में जाते समय क्या पापा घर में रहते हैं। वह फिर मुझे कुछ देर एकटक देखता रहा फिर बोला - नहीं घर में मै और मम्मी ही है।  मैंने फिर पुछा- और पापा। वह बोला - उन्हें करंट शॉक लग गया।

मैंने दोबारा पुछा: क्या अब वह हॉस्पिटल में हैं।
वह बोला - नहीं।  
तो ,मैंने न चाहते हुए भी क्यों उससे एक और सवाल किया " क्यों नहीं? फिर कहाँ है पापा।" 
वह बोला "जब उन्हें करंट शॉक लगा तब ही मर गए।" इस बात कहते समय उसकी आँखों में कितनी मामिर्कता छा गई थी यह मै नहीं जानती हूँ। 
पर तब भी  मैं  अपनी उत्सुकता रोक न सकी और पूछ बैठी "कब? " वो अपने छोटे- छोटे हांथो को पास लाकर इशारा करते हुए बोला " जब मैं इतना छोटा था"

सच है हम जितना पा लेते है, उससे और अधिक  करते है पर ये भूल  जाते है  कइयों  की स्तिथि तो और भी बुरी होती हैI हमें ईश्वर ने  सामर्थ तो दिया ही  है की हम स्वयं अपने लिए मार्ग ढूंढ ले 

तब भी हम अपने दुख पर ईश्वर को ही दोषी मानते है। कभी भी उसके प्रति कृतघ्न नहीं रहते

Wednesday, September 17, 2014

काश ये दुनिया मेरा कैनवास होता 


मैं एक पेन्टर हूँ 
अपनी कल्पना को कैनवास पर उतारती हूँ 
मन के भाव को कुछ टेढ़ी- मेढ़ी लाइनों और रंगो के माध्यम से निखारती हूँ 
एक बेजान से कागज़ में नई जान डालती हूँ 
इस तरह कोरे कागज़ पर मैं अपना सपना सवारती हूँ 

काश ये दुनिया मेरा कैनवास होता 
मेरा ब्रश उसमें भी कोई नई कलाकारी करती 
इसमें रहते रंग -बिरंगे प्यादों को एक खूबसूरत से दृश्य में ढालती 
सुंदर रंगो को चुन उसे और मनमोहक बनाती 
फ़िर उस पेंटिंग को फ्रेम में क़ैद कर अपनी वॉल पर मैं सजाती 

काश ये दुनिया मेरा कैनवास होता !

Sunday, September 14, 2014

बचपन 

बस थोड़ा सा खुलापन चाहिए 
दोबारा मुझे अपना बचपन चाहिए 
वो सुख में हंसी, तो दुःख में आँसू चाहिए 
वो बेफिक्री का आलम चाहिए 
वो गुड्डा- गुड्डी का खेल 
वो छुक- छुक करती मेरी रेल 
वो कागज़ की कस्ती 
और उसकी नौका तैर 
तितलियों को देखकर उछलना 
आइसक्रीम खाने को मन का मचलना 
वो रंग-बिरंगे गुब्बारे फूलना 



चाँद को भी चंदा मामा बुलाना 

ये छोटी- छोटी बातें कितनी याद आती है 
वो दादी- नानी की कहानी 
वो छन से बरस्ता पानी  
वो खिलखिलाता चेहरा वो मासूमियत 
वो तुतलाहट और टूटे- फूटे शब्द 
कितना अनमोल होता है माँ की गोद में सोना 
माँ का लाड़ पाने को झूठ- मुठ का रोना 

तब एक छोटे से कमरे में मेरा अपना एक छोटा कमरा बनाती 
पर क्यों आज आसमान को छूता मकान चाहिए 
बचपन में डॉक्टर, इंजीनियर बनना कितना आसान था 
पर बड़े होते ही इन्सान बनाना भी कितना मुश्किल सा जान पड़ता है 

AB से बढ़ का बी ए में है जा पहुंचे 
तब जानते थे क्या नहीं चाहिए 
अब जाना क्या चाहिए 
माना पढ़ लिख कर बुद्धि जीव हो गए है 
पर बचपन और यौवन में फासला कुछ बढ़ गया है 
बचपन की याद तो जैसे जम सी गयी है 
पर कभी कुछ पिघलता है 
तो बचपन की नासमझी फिर याद आ जाती है 
अब न दौलत न शौहरत चाहिए 
न ये मुकाम चाहिए 
अब ये बेमानी भाव कही छिप जाने चाहिए 
सच्चाई का नाता दिल से दोबारा जुड़ जाना चाहिए 
बस थोड़ा सा खुलापन चाहिए 
दोबारा मुझे अपना बचपन चाहिए 

Wednesday, September 3, 2014

** कल्पना की शाखाओं पर नव पल्लव विकसित होते ही रहते हैं  **

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