खुदगर्ज़ ज़माना
इस खुदगर्ज़ ज़माने का साथ हम निभाए कैसे?
छुप बैठा है भेड़ की खाल में भेड़िया
उसे अब हम पहचाने कैसे?
सब को खुला मैदान चाहिए, घर नहीं माकान चाहिए
कोई स्वछंद परिंदा पर फैलाए तोह कैसे?
इस खुदगर्ज़ ज़माने का साथ हम निभाए कैसे?
घड़ी की नोक पर भागता है आदमी
कुछ बात करनी थी, पल भर के लिए उसे ठहराए कैसे?
क्रोध भरा है भीतर, पर प्यार से इन्हें समझाए कैसे?
लहू अब जम सा गया है
वक्त भी थम सा गया है
जहाँ ज़िंदगी से है मौत सस्ती
डराती है ये वीरान बस्ती
सोए हुए इस आदमी को अब जगाये कैसे?
घुटन की इस ज़ंजीर से बाहर खुद को निकाले कैसे?
ये कहने को तो कहता जाता है
भाषण, नारेबाजी तोह कही आर्टिकल छपवाता है
कहने से परे, कहने की पहलकदमी कोई नहीं करता
वो पहल, वो शुरूआत कोई करे तो कैसे ?
इस खुदगर्ज़ ज़माने का साथ हम निभाए तो कैसे?
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