Thursday, March 24, 2016

गम का बाज़ार

गम क्या बाज़ार में मिलता है
जो आँखें बार - बार नम हो जाती है
कभी किसी की याद बनकर
कभी अकेली रात बनकर
कभी होंठों तक ना आ सकी, वो बात बनकर
कभी जुदाई के डर का एहसास बनकर

गम क्या बाज़ार में मिलता है
जो आँखें बार - बार नम हो जाती है
लब पर ये जबरन मुस्कान भी
दिल का हाल कब छुपाती है
ये रोक ना पायें खुद को तो,
आँखों से नीर बहाती है
कभी किसी गैर की तड़प देखकर
कभी खुशियों की अपार सीमा छू लेने पर
कभी जीवन की नाकामयाबी पर
तो कभी किसी की कड़वी बात सुनकर
सुख हो या हो दुख!
आँसू ये छलकाती है
दर्द के सभी रिस्ते ये बखूब  ही निभाती है

शायद! गम बाज़ार में मिलता है
जो आँखें बार - बार नम हो जाती है

Sunday, March 20, 2016

डगर की ख़ोज



अपनी डगर की ख़ोज में
राहें हम बदलतें रहे
कभी गिरें तो कभी हम सभलते रहे
वक्त तो चलता रहा अपनी चाल
दिन हुए महीने, तो महीने साल में बदलतें रहें
शायद ये जीवन रूपी जंजीर,
हमे अपनी बाहों मे जकड़ते रहे
हम कभी उलझते, तो कभी सुलझते रहे
अपनी डगर की ख़ोज में
राहें हम बदलतें रहे


दिन का इंतज़ार

दिन का बेसब्री से इंतज़ार है हमे
पर ये रात है जो ढलती नही
बहुत हुई अमावस्या की काली परछाई
अब पूर्णिमा सी चाँदनी चाहिए
दो पल को खुशियों की जिंदगानी चाहिए
नया दिन देखने को मेरा दिल मचल रहा हैं
मेरा मन मुझसे अब ना संभाल रहा है

आह! कमरे में कितना अंधेरा समाया हैं
बस चाँद थोड़ी सी रोशनी बिखेरे है नभ में
हाल मेरा देख मंद-मंद मुस्कुरहा रहा हैं
पर नींद है की आती नही हैं
मीठे सपनों  में सुलाती नहीं हैं
शबनम की ओस क्यू पिघलती नहीं हैं 
ये नामी जाएगी कैसे
नींद मुझे आएगी कैसे
इच्छायें पर फैलाए उड़ना चाहती है
पर इस बात से अंजान सूरज, बेख़बर सोया हैं
मन मेरा ख़यालों की गुथियो में उलझा है
कभी पुरानी बातों में घूम आता
कभी भविष्य की अनदेखी सीमा को छू आता
सुंदर सपना आज मुझे कितना लुभाता 
आनेवाले कल की कल्पना इतनी मधुर होगी, सोचा नहीं था
हर दुख से उपर उठ जाओंगी ये भी जाना ना था

बरगद के पेड़ पे किया निशान अब धुँधला गया है
मुझमे अब भी गमों की यादे तो है समाई
पर पहले की तरह अब उनमे वो दर्द नही
दिन का बेसब्री से इंतज़ार है हमे
पर ये रात है जो ढलती नही!!

Tuesday, March 8, 2016

गुनाह



अब तक ज़मा था किसी कोने में 
परत दरपरत बढ़ता जा रहा था
जमाने से कैसे मिलता वो 
कॅकून सा छुपा बैठा था वो

इतनी गर्त में सच्चाई कौन देख पाता
उसकी नज़रें जब औरो की नज़रों से ना मिलती थी
तो ये बीच की जमी बर्फ कैसे पिघलती??



Saturday, March 5, 2016

छोटी छोटी खुशियों मे ज़िंदगी बस्ती है



कभी रंग बिरंगे गुब्बाओं को आकाश मे उड़ते देखना
कभी किसी पिंजरे मे बंद पंछी को गगन मे खुला छोड़ना
रात मे टेरेस पर लेट कर चाँद तारों को निहारना
किसी बच्चे का ख़ुसी से खिलखिलाना
इन छोटी छोटी खुशियों मे ज़िंदगी बस्ती है
बस ऐसे ही लम्हो से ये महफ़िल सजती है

किसी ग़रीब को खाना खिलाना
किसी अंधे को रोड क्रॉस करना 
कई बार अपनी बात को बिना तर्क , ज़िद्द से मनवाना
अपने बचपन के क़िस्से बड़े चाव से सुनाना
बिन मौसम की बारिश मे भीग जाना
सर्दी की रात मे आइस-क्रीम खाना
इन छोटी छोटी खुशियों मे ज़िंदगी बस्ती है
बस ऐसे ही लम्हो से ये महफ़िल सजती है

मा की गोद मे सर रख कर सोना
किसी की आँखों मे तुम्हारे लिए आपार स्नेह का होना
पूरी रात बस किसी की याद मे गुज़ार देना
कोई अच्छी नज़्म या ग़ज़ल पढ़ना
मंदिर मे बैठ कर आपार शांति का अनुभव करना
दोस्तो के संग बैठ हँसी ठिठोली करना 
सबको भूल! बस अपने मंन की करना 
इन छोटी छोटी खुशियों मे ज़िंदगी बस्ती है
बस ऐसे ही लम्हो से ये महफ़िल सजती है

Wednesday, March 2, 2016

काश

काश! उमीद का है कारोबार
किसी पे करता नही ये ऐतबार
इसने सबको कस्माकश मे डाला है
पिरोइ कच्चे धागों की माला है

ये काश शब्द कितना पेचीदा है
कितनी ही संभावनाए लाकर रख देता है सामने
इंसान को अपने ही किए पर अफ़सोस दिलाता है
अपनों के ही खिलाफ ये ले जाता है

काश! सबको दावा सा करता 
अपनी ही कहानी सुनता है
घूम फिर के ये बीती बात दोहराता है...
मेरी ज़िंदगी और बेहतर होती तो अच्छा था..
कहता है 
काश ऐसा ना होता
काश कुछ वैसा होता
ये काश शब्द सच मे कितना पेचीदा है