Tuesday, December 8, 2015

Dayara

जब रात में थक कर कुछ सोचती हूँ
लगता है की शायद शरीर पर सीलन सी पड़ गयी है
कुछ समय से बेरोज़गार सी पड़ी है
अपने आपको सर्कस के जोकर सा पाती हूँ
सासों में घुटन, तंग हवओ में जीती हूँ
दोष किसका कहूं, शिकायत किससे करूँ,
रोजमर्रा के बोझ  में इच्छायें दम तोड़ने लगी है
आख़िर मेरी ज़िंदगी कहा जा रही है
इन चार नपी तुली लाइनों के दायरों मे दबी जा रही है

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