माना की मसले बहुत है दुनिया में
और ये रिस्ते भी कम संजीदा ऩही
पर क्या ज़िंदगी अब इतनी भी मयस्सर नहीं
की सुकून के कुछ लम्हे गुज़ार ले...
सुना है, ग़मों से रूबरू होते ही
शकशियत में और निखार आ जाता है
लो ये भी कर लिया
पर अब भी कुछ नहीं बदला
न फ़ज़ाए बदली
ना ये नज़ारे बदले
गीले भी है, शिकवे भी है
और खड़े सब मसले भी है
शायद ये ही ज़िन्दगी है और शायद नहीं भी है
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