Sunday, April 5, 2015

Ghazal



माना की मसले बहुत है दुनिया में 
और ये रिस्ते भी कम संजीदा ऩही
पर क्या ज़िंदगी अब इतनी भी मयस्सर नहीं 
की सुकून के कुछ लम्हे गुज़ार ले...

सुना है, ग़मों से रूबरू होते ही 
शकशियत  में और निखार आ जाता है 
लो ये भी कर लिया 
पर अब भी कुछ नहीं बदला 
न फ़ज़ाए बदली 
ना ये नज़ारे बदले 
गीले भी है, शिकवे भी है 
और खड़े सब मसले भी है 
शायद ये ही ज़िन्दगी है और शायद नहीं भी है


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