Friday, October 16, 2015

नफ़रत की दीवार



एक मेरा सच है
और एक तेरा पक्ष है
नफ़रत की इस दीवार पर साथी एक पैगाम
तू भी लिख
ये बतला, कब लोगो से परे गोलियाँ तेरी दोस्त बन गयी
ये कैसा रोष
हुई तेरी चेतना बेहोश
आँखे मूंदकर बस गोली चला दी 
कभी ये सोचा उसके पीछे भी कोई रोता होगा
किसी की पत्नी को बेवा और
बच्चों को यतीम करते समय
तेरे हाथ कभी नही कापते 
चिखते गिड़गिदते लोगो का ख़ौफ़ देख 
शायद हृदय के किसी कोने मे द्वंद भी तो होता होगा
तेरी जिंदगी के मायने क्या खून ख़राबा है
तो ये जिंदगी, जिंदगी नही छलावा है
दिन भर की दहसदगीर्दी के बाद
रात मे क्या सपने लेकर सोता होगा
नफ़रत की इस दीवार पर साथी
अपना पैगाम तू भी लिख.

No comments:

Post a Comment