Saturday, March 28, 2015

खोई सी उम्मीद

आज मेहनत नहीं नसीब की बात करता है आदमी 
अपनों की नहीं सिर्फ अपनी बात करता है आदमी  
अब विचार संकीर्ण होते जा रहे है 
झूठ को सच कहता है आदमी 
मुर्दा घर में भी बड़े शान से चलता है आदमी 
ईमानदारी ने जैसे आँख मूँद ली हो 
बेशर्मी का नंगा नाच दिखा रहा है आदमी 
आज डर का माहौल सजा है
हर तरफ़ बमो और विस्फोटो का चर्चा छिड़ा है 
कुछ को ये विनाश छूकर गया है 
तो कइयों का चिथड़ा पड़ा है 
आज ईश्वर को मन नहीं मंदिरो में खोजा जाता है 
जब अन्याय से लड़ने को कोई अकेला खड़ा आवाज़ लगता है 
तब दूसरा उससे कुछ कदम दूर चला जाता है 
और न्याय भी चादर ओढ़ मीठी नींद सो जाता है 
क्या ये सुन्दर गुलस्ता बिखर जाएगा 
या कोई इसकी सुरक्षा का भार उठाएगा 
शिकायत तो हम तुम हर पल किया करते है 
चलो उम्मीद की ज्योत जलाए 
एक कदम तुम चलो तो एक कदम हम चलते है 

Thursday, March 26, 2015

खुदगर्ज़ ज़माना

खुदगर्ज़ ज़माना 

इस खुदगर्ज़ ज़माने का साथ हम निभाए कैसे?
कौन सच्चा है ये आजमाए कैसे?
छुप बैठा है भेड़ की खाल में भेड़िया 
उसे  अब हम पहचाने कैसे?

सब को खुला मैदान चाहिए, घर नहीं माकान चाहिए
कोई स्वछंद परिंदा पर फैलाए तोह कैसे?
इस खुदगर्ज़ ज़माने का साथ हम निभाए कैसे?

घड़ी की नोक पर भागता है आदमी 
कुछ बात करनी थी, पल भर के लिए उसे ठहराए कैसे?
क्रोध भरा है भीतर, पर प्यार से इन्हें समझाए कैसे?

लहू अब जम  सा गया है 
वक्त भी थम सा गया है 
जहाँ  ज़िंदगी  से है मौत सस्ती 
डराती है ये वीरान बस्ती 
सोए हुए इस आदमी को अब जगाये कैसे?
घुटन की इस ज़ंजीर से बाहर खुद को निकाले कैसे?

ये कहने को तो कहता जाता है 
भाषण, नारेबाजी तोह कही आर्टिकल छपवाता है 
कहने से परे, कहने की पहलकदमी कोई नहीं करता 
वो पहल, वो शुरूआत  कोई करे तो कैसे ?
इस खुदगर्ज़ ज़माने का साथ हम निभाए तो कैसे?

Saturday, March 14, 2015

ग़ज़ल

ग़ज़ल 

उलझनों ने सुलझना नहीं सीखा 
आज भी हमने इंसानो को परखना नहीं सीखा 
मिल रही है हमें वफ़ा की सज़ा 
फिर भी हमने बेवफ़ाई करना नहीं सीखा !!!