Sunday, April 19, 2015

एक छोटी सी खिड़की से कितनी दुनिया देख चूका


मैं तीसरे माले पर रहता हूँ
अपने में कुछ खोया- खोया
सब से बेखबर
अपनी छोटी सी चार दिवारी में बंद दुनिया
घर में एक छोटी सी खिड़की है
जो मुझे दूसरों से कभी कबार जोड़ देती है
बैठे- बैठे वहाँ से आते जाते लोगों को देखा करता हूँ
उनकी हँसी में अपनी हँसी खोजा करता हूँ

नाख़ून चबाता जब सामने से कोई निकले
मेरा दिल ! क्या हुआ ये जानने मन मचले
रुआँसा सा जब कोई दबे पाँव चला जाता है
मेरी जिज्ञासा भी बढ़ा जाता है
सोचता हूँ, पूंछूं क्या हुआ ?
पर तहज़ीब का दायरा याद आ जाता हैं

बॉल लिए जब कोई अपनी धुन में चला जाता हैं
कभी गेंद आकाश में उछाले, तो कभी ज़मीन पर
कभी उँगलियों पर रखकर  करतब दिखाता
उसे देख मझे मेरा बचपन याद आता

सर्दी के मौसम में, मैं कोट पे कोट डाले बैठता हूँ
तो खिड़की के बाहर बिखारी को मैं नंगे बदन सुकड़ता सा पता हूँ
तब अपने शरीर पर स्वेटर और ओवरकोट के अंदर भी
शरीर पर उठे काँटों के अहसास से सिहर सा जाता हूँ

जब चार कंधे शव को गली से ले जाते
तो उसके परिजन का शोक देख मेरे आँखों में आँसूं छलक आते

मैं इस खिड़की पर लटका देखता हूँ हज़ारों नज़रें
हज़ारों चेहरे, कोई नाचता, कोई गाता, कोई रोता और कोई मुस्कुराता
कितनी अलग है ये दुनियाँ 
खिड़की के अन्दर एक दुनियाँ
खिड़की के बाहर अनेकों दुनियाँ

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