Tuesday, April 28, 2015

काश दिल में यादें लिखने वाली पेंसिल का भी कोई रबर होता



काश दिल में यादें लिखने वाली
पेंसिल का भी कोई रबर होता

वक़्त बेवक़्त आती यादो को रोक पाती 
मेरे दिल का दरवाज़ा अक्सर खुलता बंद होता रहता है 
और ज़िद्दी यादों की ताका -झाँकी भी चलती ही रहती है
क्या करे दिल हज़ारों ख्वाइशें जो  करता रहता है
कभी दिनों में, कभी घण्टों में, तो कभी पलो में 
रह रह कर दस्तक दे जाती है 
ये वक़्त और जगह नहीं देखती है 
बेवक़्त ही सताती है 
कभी तो तन्हा भी छोड़  जाती हैं 
सच में, इसे बहला पाना आंसा नहीं 
इसलिए सोचती हुँ 
काश दिल में यादें लिखने वाली
पेंसिल का भी कोई रबर होता



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