ख़्वाब
खामोशी का आलम था
मन में कुछ हलचल होती
अपने ही ख़्वाब संजोती
यादों का पिटारा ले
पर फैलाये उड़ जाती वो
सुखद स्मृतियों की लहरें उठती
गुमनाम गलियों में न जाने कहाँ खो जाती वो ?
नज़रों के सामने से हक़ीकत ओझल होती
स्वप्नों और आशाओं की दूनियाँ में चल कर जाती वो
कदमों की थाप का आभास तो न होता
बैठे- बैठे ही सबसे बेख़बर हो जाती वो
यादों का पिटारा ले
पर फैलाये उड़ जाती वो
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