Friday, October 24, 2014
Thursday, October 16, 2014
विरान गलियां
विरान गलियां
सन्नाटों में भी सन- सन करता है कोई
सपने तिनको की तरह बिखर गए है
अब भी उन तिनकों में आशियाना देखता है कोई
जहाँ सारी इच्छाएं दम तोड़ देती है
वहाँ एक नई उम्मीद की कीरन देखता है कोई
इन तंग गलियो में भी
स्वछंद साँस लेता है कोई
जहाँ होड़ में है सब भागते
वहीं हलके कदम उत्साह से चलता है कोई
जहाँ सबका है शोशल स्टेटस पर ध्यान
वहीँ किसी के मायूस चेहरे पर नन्ही सी मुस्कान बिखरता है कोई
इस रंगीन दुनिया में भी बेरंग रह जाता है कोई
तो कभी ज़मीन पे जन्मा, आसमान को नापता है कोई
ये आम आदमी ही, कुछ अनोखा कर गुजरता है कभी
हाथ की लकीरों को पीछे छोड़ आगे बढ़ चलता है कोई
वहीं हलके कदम उत्साह से चलता है कोई
जहाँ सबका है शोशल स्टेटस पर ध्यान
वहीँ किसी के मायूस चेहरे पर नन्ही सी मुस्कान बिखरता है कोई
इस रंगीन दुनिया में भी बेरंग रह जाता है कोई
तो कभी ज़मीन पे जन्मा, आसमान को नापता है कोई
ये आम आदमी ही, कुछ अनोखा कर गुजरता है कभी
हाथ की लकीरों को पीछे छोड़ आगे बढ़ चलता है कोई
Sunday, October 12, 2014
Thursday, October 9, 2014
कलम
जब सब सो रहे होते है
तो मेरा हृदय और दिमाग कुछ नया गढ़ रहा होता है
वहाँ जब सब गहरी नींद में डूबे होते है
मैं यहाँ अपनी भावनाओ को टटोलता हुआ करवटे लेता है
इन सब को बुनकर, एक नई कविता गढ़ता हूँ
दोनों एक दूसरे से बात करते है
उस मैं के अंदर और बहार की दूरी तय करते है
और अपने एक्सपीरिएंस (Experience) कोरे कागज पर शेयर (share) करते है
Tuesday, October 7, 2014
वक्त
पर ये नहीं जानता था ,
एक दिन ये वक्त मुझे थाम लगा
समय तो रेत सा हाथ से फ़िसल गया
पर शायद मेरे पाँव को जकड़ लिया
मैं आगे नहीं बढ़ा
इतना श्रीण सा हो गया
की बाकी सब बेमतलब सा जान पड़ा
वक्त ने तोह अपनी सुई की गति रोकी नहीं
पर मुझे शिथिल कर गया
वक्त ने घाव तोह भर दिए
पर निशान नहीं मिटा पाया
हूंठो पे हँसी तो ला दी
पर आँखों की नमी नहीं हटा पाया
वक्त को मैं क्या थमता
वक्त ने मुझे ही थाम लिया था
Monday, October 6, 2014
दस्तक
चिलमन की ओट से बार-बार निहारने लगा था वो
क्या करे ये दो नैना नादान
होठ तो कुछ न बोलते
पर आँखों से छेड़ छाड़ करने लगा था वो
सब सुन्दर लगने लगा था
उन फूलों की मैंहक
प्यारी चिड़ियों की चहक
लब्ज़ नहीं खामोशी बोलती थी
अचानक ही इतना हल्का महसूस हुआ
मानो पंछी के संग उड़ रही हूँ क्षितिज तक
दर्पण को बार- बार निहारने लगी थी मैं
जाने क्या सोच यूँ मुस्कुराने लगी थी मैं
अब बस उन यादों में समाने लगी थी मैं
दिल के दरवाज़े पे दस्तक दे गया था वो
Sunday, October 5, 2014
ख़्वाब
ख़्वाब
खामोशी का आलम था
मन में कुछ हलचल होती
अपने ही ख़्वाब संजोती
यादों का पिटारा ले
पर फैलाये उड़ जाती वो
सुखद स्मृतियों की लहरें उठती
गुमनाम गलियों में न जाने कहाँ खो जाती वो ?
नज़रों के सामने से हक़ीकत ओझल होती
स्वप्नों और आशाओं की दूनियाँ में चल कर जाती वो
कदमों की थाप का आभास तो न होता
बैठे- बैठे ही सबसे बेख़बर हो जाती वो
यादों का पिटारा ले
पर फैलाये उड़ जाती वो
Saturday, October 4, 2014
श्याम दूसरी कक्षा का छात्र है ,नाम के साथ - साथ उसका वर्ण भी काला है। मैंने उसे अकेले स्कूल जाते देखा तो पूछ लिया "आज तुम अकेले? मम्मी छोड़ने नहीं आयी"। वह फट से बोल दिया "मैं तो रोज ही अकेले आता हूँ।
मैंने पुछा: और मम्मी! वो बोला - वह तो काम करती हैI मैंने जिज्ञासा के कारण पूछ लिया - कौन सा काम? वह बोला " बर्तन धोती है। " फिर जाने मुझे कौन सी गरज पड़ी थी। मैंने पुछा "और तुम्हारे पापा "।
वह बोला इलेक्ट्रिक शॉप में। फिर मैंने पुछा घर में जाते समय क्या पापा घर में रहते हैं। वह फिर मुझे कुछ देर एकटक देखता रहा फिर बोला - नहीं घर में मै और मम्मी ही है। मैंने फिर पुछा- और पापा। वह बोला - उन्हें करंट शॉक लग गया।
मैंने दोबारा पुछा: क्या अब वह हॉस्पिटल में हैं।
वह बोला - नहीं।
वह बोला "जब उन्हें करंट शॉक लगा तब ही मर गए।" इस बात कहते समय उसकी आँखों में कितनी मामिर्कता छा गई थी यह मै नहीं जानती हूँ।
पर तब भी मैं अपनी उत्सुकता रोक न सकी और पूछ बैठी "कब? " वो अपने छोटे- छोटे हांथो को पास लाकर इशारा करते हुए बोला " जब मैं इतना छोटा था"।
सच है हम जितना पा लेते है, उससे और अधिक करते है पर ये भूल जाते है कइयों की स्तिथि तो और भी बुरी होती हैI हमें ईश्वर ने सामर्थ तो दिया ही है की हम स्वयं अपने लिए मार्ग ढूंढ ले ।
तब भी हम अपने दुख पर ईश्वर को ही दोषी मानते है। कभी भी उसके प्रति कृतघ्न नहीं रहते।
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