Wednesday, January 6, 2016

उलझन



हर कदम तेरी ही परछाई क्यूँ 
आप्नत्व है फिर भी बेरुख़ाई क्यू
हर टूटा महल खंडहर नही होता
माना की हर रिस्ते का नाम नही होता
जो छूट गया पीछे वो बेगाना नही होता
छुपा लेने से स्नेह कभी कम नही होता

क्यूँ जिंदगी का हर फ़ैसला तुम्हे ही लेना था
मैं उड़ाना चाहती थी
तुमने टोका
मैं  खिलना चाहती थी
तुमने रोका
पर तो तुमने काट ही डाला था
फिर भी पिंजरा खुला रखने से डरते रहें
मायने बदल गये है...हम दोनों मे जीवन के 
पर एक बार मूड कर पीछे देखने मे कोई हर्ज तो नही होता

हर टूटा महल खंडहर नही होता
काश बद्रंग बादल मे फिर से रंग भर जाए 
सतरंगी इंद्रधनुष आए
ख़ुसीयों की बूँद कुछ मेरे आँगन मे भी छलक जाए
हर कदम तेरी ही परछाई क्यूँ 
आप्नत्व है फिर भी बेरुख़ाई क्यू?

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