Sunday, March 20, 2016

डगर की ख़ोज



अपनी डगर की ख़ोज में
राहें हम बदलतें रहे
कभी गिरें तो कभी हम सभलते रहे
वक्त तो चलता रहा अपनी चाल
दिन हुए महीने, तो महीने साल में बदलतें रहें
शायद ये जीवन रूपी जंजीर,
हमे अपनी बाहों मे जकड़ते रहे
हम कभी उलझते, तो कभी सुलझते रहे
अपनी डगर की ख़ोज में
राहें हम बदलतें रहे


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