अपनी डगर की ख़ोज में
राहें हम बदलतें रहे
कभी गिरें तो कभी हम सभलते रहे
वक्त तो चलता रहा अपनी चाल
दिन हुए महीने, तो महीने साल में बदलतें रहें
शायद ये जीवन रूपी जंजीर,
हमे अपनी बाहों मे जकड़ते रहे
हम कभी उलझते, तो कभी सुलझते रहे
अपनी डगर की ख़ोज में
राहें हम बदलतें रहे
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