Wednesday, March 2, 2016

काश

काश! उमीद का है कारोबार
किसी पे करता नही ये ऐतबार
इसने सबको कस्माकश मे डाला है
पिरोइ कच्चे धागों की माला है

ये काश शब्द कितना पेचीदा है
कितनी ही संभावनाए लाकर रख देता है सामने
इंसान को अपने ही किए पर अफ़सोस दिलाता है
अपनों के ही खिलाफ ये ले जाता है

काश! सबको दावा सा करता 
अपनी ही कहानी सुनता है
घूम फिर के ये बीती बात दोहराता है...
मेरी ज़िंदगी और बेहतर होती तो अच्छा था..
कहता है 
काश ऐसा ना होता
काश कुछ वैसा होता
ये काश शब्द सच मे कितना पेचीदा है

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