दिन का बेसब्री से इंतज़ार है हमे
पर ये रात है जो ढलती नही
बहुत हुई अमावस्या की काली परछाई
अब पूर्णिमा सी चाँदनी चाहिए
दो पल को खुशियों की जिंदगानी चाहिए
नया दिन देखने को मेरा दिल मचल रहा हैं
मेरा मन मुझसे अब ना संभाल रहा है
आह! कमरे में कितना अंधेरा समाया हैं
बस चाँद थोड़ी सी रोशनी बिखेरे है नभ में
हाल मेरा देख मंद-मंद मुस्कुरहा रहा हैं
पर नींद है की आती नही हैं
मीठे सपनों में सुलाती नहीं हैं
शबनम की ओस क्यू पिघलती नहीं हैं
ये नामी जाएगी कैसे
नींद मुझे आएगी कैसे
इच्छायें पर फैलाए उड़ना चाहती है
पर इस बात से अंजान सूरज, बेख़बर सोया हैं
मन मेरा ख़यालों की गुथियो में उलझा है
कभी पुरानी बातों में घूम आता
कभी भविष्य की अनदेखी सीमा को छू आता
सुंदर सपना आज मुझे कितना लुभाता
आनेवाले कल की कल्पना इतनी मधुर होगी, सोचा नहीं था
हर दुख से उपर उठ जाओंगी ये भी जाना ना था
बरगद के पेड़ पे किया निशान अब धुँधला गया है
मुझमे अब भी गमों की यादे तो है समाई
पर पहले की तरह अब उनमे वो दर्द नही
दिन का बेसब्री से इंतज़ार है हमे
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